मां की प्रेरणा से जमी-जमाई वकालत छोड़ जैविक खेती करने लगे बेंगलुरु के जयराम
"जागरूकता ने जैविक खेती को एक बड़े रोजगार में तब्दील कर दिया है। ऐसी उपज का अब सिर्फ आम उपभोक्ताओं ही नहीं, बाजार को भी इंतजार रहने लगा है। तभी तो कर्नाटक के एक छोटे से गांव में पैदा हुए एचआर जयराम अपनी चौंतीस वर्ष की वकालत छोड़ कर अब जैविक खेती करने लगे हैं।"
अपनी पसंद की लड़की से शादी रचा लेने के कारण सामाजिक बहिष्कार तक झेल चुके जयराम को जिंदगी की राह आसान करने में सबसे ज्यादा अपनी मां से मदद मिली, जो उन्हे हर वक़्त पढ़ाई में जुटे रहने के लिए बचपन से ही प्रेरित करती रहती थीं। मां सामान्य गृहिणी और पिता खेतिहर। वह सात साल की उम्र से ही खेती बाड़ी में अपने पिता का हाथ बंटाने लगे थे। ऊंची पढ़ाई की लालसा में उनको माता-पिता ने दूर के अच्छे कॉलेज में एडमिशन दिला दिया लेकिन सामाजिक रूप से अवांछित शादी की छूत ने वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। इस उत्पीड़न से वह समाज को अलग नजरिये से देखते हुए लोगों की मानसिकता के बारे में सोचने और इसे ठीक करने की दिशा में विचारने लगे। इसमें उन्हे सबसे पहले अपने कॉलेज के प्रिंसिपल से मदद और प्रेरणा मिली।
अपनी खराब माली हालत के बावजूद बेहतर पढ़ाई के लिए जयराम अपना घर-गांव छोड़कर एक दिन बेंगलुरु पहुंच गए और वहां के रेणुकाचार्य कॉलेज में कानून की पढ़ाई के लिए एडमिशन ले लिया। किसी तरह पढ़ाई भर को खुद पैसे जुटाकर वह अध्ययन के साथ ही शहर के बड़े वकीलों की संगत में पहुंच गए। और इस तरह वह एक दिन शहर के अच्छे वकीलों में शुमार होने लगे। उन्होंने खुद की लॉ फर्म के साथ ही उनकी 30 सहयोगी वकीलों की पूरी टीम बन गई।
जयराम ने अपने बचपन और स्कूल के जैसे दिन बिताए थे, जिस तरह उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था, वे सब बातें उन्हे अपनी सफल वकालत के बावजूद अंदर ही अंदर सालती दुखती रहती थीं।, जिससे उन्हे अपने पेशे में कभी सुकून का अहसास नहीं हो पाता था। फिर भी उनकी वकालत वह सिलसिला साढ़े तीन दशक तक चलता रहा। आखिरकार, अपनी जमी-जमाई वकालत छोड़कर वह बेंगलुरु के नेलमंगला से कुछ दूर स्थित मरासराहल्ली में 40 एकड़ बंजर ज़मीन लेकर उस पर जैविक खेती करने लगे। इस पहले जैविक खेती पर काफी अध्ययन और कई देशों के दौरे कर तमाम कृषि वैज्ञानिकों, किसानों के अनुभव जुटा चुके थे।
यह सब करते-कराते एक दिन जयराम ने बेंगलरु के मल्लेस्वरम में ग्रीन पार्क ऑर्गेनिक स्टेट (सुकृषि ऑर्गेनिक फार्म) लांच कर दिया। उस समय उनकी बंजर जमीन हरियाली से लहलहा रही थी। उसके बाद उन्होंने अपने एग्रिकल्चर फार्म में कृत्रिम झील, डेयरी फार्म आदि स्थापित कर अपने मिशन को एक नए और ऊंचे आयाम तक पहुंचा दिया। इस समय उनके कृषि फार्म में अरेका नट, नारियल, अमरूद, चूना, नीम आदि की मल्टीक्रॉप खेती हो रही है। शहर के होटल सीधे उनके फार्म से उपज मंगाने लगे हैं।
जयराम के इस कृषि फार्म एक खासियत यह भी है कि वह केवल बरसात के पानी निर्भर रहता है। एक दिन की बारिश से ही बीस दिन की खेती भर पानी वह जमा कर लेते हैं। फसलों के कचरे से कीटनाशक बना लेते हैं। उनके कृषि फार्म में इकोफ्रैंडली कैफे, शॉपिंग स्टोर, रेस्टोरेंट खुल चुके हैं। साथ ही वह अपने 'ग्रीन पाथ फाउंडेशन' के माध्यम से लोगों को जैविक खेती के लिए जागरूक भी कर रहे हैं।
जयराम की तरह ही चतरा (झारखण्ड) के गांव सिमरिया डाड़ी की सुनीता देवी भी जैविक खेती के कारण अपने गांव-जिले में ही नहीं पूरे राज्य में मशहूर हो चुकी हैं। वर्ष 2004 में गांव में गठित महिला समूह की सदस्य बनने के बाद उनकी जिंदगी ने पहली बार ये करवट ली थी। दिसंबर 2016 में जब राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन सक्रिय हुआ, वह उसके सीआरपी ड्राइव आजीविका मिशन से जुड़ गईं और फिर झारखंड स्टेट लाईवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी से प्रशिक्षण लिया और उसके बाद खेती में आधुनिक तकनीक से अपनी किस्मत आजमाने लगीं।
इस समय वह अपने गांव के 90 किसानों को जैविक खेती के लिए प्रशिक्षित कर रही हैं। वह अपने खेत की मिट्टी और फसलों का बिना केमिकल के खुद की ईजाद जैविक दवाओं निमास्त्रा, ब्रम्हस्त्रा, अग्निआस्त्रा, सिदवार के पत्ते आदि से इलाज करती हैं। वह जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए अभियान चला रही हैं।
इसी तरह जैविक खेती के लिए विभिन्न निजी कंपनियों को डेढ़ लाख रुपए मासिक पर अपनी सेवाएं दे रहे जयपुर (राजस्थान) के भंवर सिंह पीलीबंगा अनूठी मिसाल पेश कर रहे हैं। वह पूरे प्रदेश में रथयात्रा निकालकर जैविक खेती के प्रति किसानों में जागरुकता फैला रहे हैं। इसी तरह लुपिन फाउंडेशन अब तक सात हजार से अधिक किसानों को पर्यावरण के अनुकूल जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती में ट्रेंड कर चुका है। यह फाउंडेशन 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की दिशा में सक्रिय है।