मैरिटल रेप: दिक्कत बुनियाद में ही है
मैरिटल रेप एक गंभीर मसला है। लेकिन सामने वाले पर अपनी इच्छाएं थोपना, सामने वाले पर अपना बिना प्रश्न के पूरा अधिकार समझना, ये सारी बातें ही इसका मूल हैं। और इसमें कोई संशय की बात नहीं है कि ज्यादातर मामलों में ये सामने वाला एक लड़की होती है। लड़कियों को इस कदर परवरिश दी जाती है कि मानो पुरुष से ही उसका सारा जहान है।
कई मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि शादी का नैतिक दबाव न होने के बावजूद कुंवारी लड़कियां भी अपने रिलेशनशिप में खुद को समर्पित कर देती हैं। अपने पुरुष पार्टनर की इच्छाओं को पूरा करना उनको अपना धर्म लगता है। तमाम युवतियां अपने प्रेमी को खुद के साथ जबरदस्ती करने देती हैं।
विश्वास के मजबूत रिश्ते, एक पति-पत्नी के रिश्ते में जबर्दस्ती जैसी बातें कहां से घुस आती हैं। यहां पर बुनियादी शिक्षाओं पर आकर पूरे बहस की धुरी फिर से रुक जाती है। जब पुरुष और स्त्री में एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान का मसला केवल एकतरफा हो जाएगा तो तमाम दिक्कतें आएंगी ही। सहमति से सहवास एक बेसिक चीज है, जिसके लिए भी इतनी हायतौबा मचानी पड़ रही है।
आपसी सहमति, वो जरूरी समझ जो हर परिवार में सिखाई जानी चाहिए। दूसरों की भावनाओं, निर्णयों का सम्मान करना सिखाया जाना चाहिए। इसका पाठ बराबरी से लड़के, लड़कियों दोनों को ही दिया जाना चाहिए। बचपन से ही। ज्यादातर समस्याएं इस बुनियादी सीख से ही खत्म हो जाएंगी। मैरिटल रेप एक गंभीर मसला है। लेकिन सामने वाले पर अपनी इच्छाएं थोपना, सामने वाले पर अपना बिना प्रश्न के पूरा अधिकार समझना, ये सारी बातें ही इसका मूल हैं। और इसमें कोई संशय की बात नहीं है कि ज्यादातर मामलों में ये सामने वाला एक लड़की होती है।
लड़कियों को इस कदर परवरिश दी जाती है कि मानो पुरुष से ही उसका सारा जहान है। कई मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि शादी का नैतिक दबाव न होने के बावजूद कुंवारी लड़कियां भी अपने रिलेशनशिप में खुद को समर्पित कर देती हैं। अपने पुरुष पार्टनर की इच्छाओं को पूरा करना उनको अपना धर्म लगता है। तमाम युवतियां अपने प्रेमी को खुद के साथ जबरदस्ती करने देती हैं। बड़ी बात ये है कि उन्हें मालूम भी नहीं होता कि ये व्यवहार जबर्दस्ती करना कहलाता है। उनके दिमाग में ये बात इसलिए नहीं आ पाती क्योंकि उनकी बुनियाद को ही मुगालते से भर दिया गया है कि पुरुष की इच्छा पूर्ति करना ही चाहिए।
आपसी सहमति का कोई अस्तित्व ही नहीं-
मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में रखने की मांग देश भर के कई एक्टिविस्ट और वकील सालों से उठा रहे हैं। 30 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया था कि मैरिटल रेप के लिए कानून नहीं बनाया जा सकता क्योंकि इससे विवाह संस्था खतरे में आ जाएगी। देश की केंद्र सरकार ने कोर्ट में दाखिल किए अपने हलफनामें में भी ऐसा ही कुछ कहा था। विवाह संस्था पर जबरदस्ती से बनाए संबंधों से होने वाले खतरे की बात भले ही अतार्किक हो। लेकिन ये हमें इस दिशा में सोचने को मजबूर करती है कि विश्वास के मजबूत रिश्ते, एक पति-पत्नी के रिश्ते में जबर्दस्ती जैसी बातें कहां से घुस आती हैं। यहां पर बुनियादी शिक्षाओं पर आकर पूरे बहस की धुरी फिर से रुक जाती है। जब पुरुष और स्त्री में एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान का मसला केवल एकतरफा हो जाएगा तो तमाम दिक्कतें आएंगी ही। सहमति से सहवास एक बेसिक चीज है, जिसके लिए भी इतनी हायतौबा मचानी पड़ रही है। देश में तलाक पर बने कानून के मुताबिक, अगर पार्टनर को सेक्स के लिए न बोला जाए तो ये क्रूरता की श्रेणी में आएगा और इसके आधार पर तलाक की अर्जी दी जा सकती है।
नेपाल, भूटान तक में मैरिटल रेप पर सजा लेकिन भारत में नहीं-
यूएन वीमेन्स रिपोर्ट 2011 के मुताबिक 179 देशों , जिनका डेटा उपलब्ध है, में से सिर्फ 52 ने कानून बनाकर मैरिटल रेप को क्राइम माना है। बचे हुए 127 देशों में दो तरह के देश शामिल हैं। पहले जिनमें मैरिटल रेप के लिए कानून बनाकर उसे अपराध नहीं माना गया है। दूसरे वे जिनमें रेप के कानूनों में मैरिटल रेप को अपवाद घोषित कर दिया गया है। मतलब मैरिटल रेप बलात्कार नहीं है। जैसे कि भारत। सबसे पहले पोलैंड ने 1932 में मैरिटल रेप को क्राइम माना था। ऑस्ट्रेलिया में 1970 के दौर में मैरिटल रेप को क्राइम माना गया था। इसके अगले दो दशकों में स्कैनडिनेवियन देशों; स्वीडन, फिनलैंड और नॉर्वे, उसके बाद कम्यूनिस्ट ब्लॉक में इस पर कानून बनाकर क्राइम माना गया। यहां तक कि भारत के दो पड़ोसी देशों नेपाल और भूटान में मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में रखा गया है।
अपने देश में मैरिटल रेप पर सीधे-सीधे तो कोई भी कानून नहीं है और न ही पति का जबरदस्ती यौन संबध बनाना रेप की सूची में डाला गया है लेकिन पत्नियों पर होने वाली यौन हिंसा रोकने के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम और आईपीसी की धारा 376बी हैं। यदि कोई महिला अपने पति से अलग रहने लगे और तब उसका पति उसके साथ जबरन यौन संबंध बनाए तो वह महिला आईपीसी की धारा 376बी के तहत अपने पति पर मुकदमा कर सकती है। इस धारा के अंतर्गत दोषी को सात साल तक की सजा हो सकती है। लेकिन इस धारा के अंतर्गत वे महिलाएं न्याय नहीं मांग सकतीं जो अपने पति के साथ रहते हुए मैरिटल रपे की शिकार हो रही हों।
कानून के दुरुपयोग के डर से कानून ही नही बनाना है घातक-
इसमें कोई शक नहीं कि कानून को सभी पहलुओं को जांच-परखकर ही बनाना चाहिए। इस बात का खास खयाल रखा जाना चाहिए कि इसका बेजा इस्तेमाल न हो। लेकिन हम सिर्फ इस डर से कानून में न बदलाव करें कि इसका दुरुपयोग होगा, ये भी गलत ही है। सरकार ने दहेज उत्पीड़न के लिए बने कानून और विशेष तौर से आईपीसी की धारा 498ए का हवाला देते हुए कहा है कि मैरिटल रेप को अगर अपराध घोषित किया जाता है तो उसका दुरुपयोग भी 498ए की तरह होने लगेगा। 498 ए के तहत कोई विवाहिता या उसका परिवार, महिला के पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा उत्पीड़न किए जाने पर मामला दर्ज करा सकता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि धारा 498ए का दुरुपयोग भी हुआ है। इसी कारण अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह के मामलों में पति और उसके रिश्तेदारों की गिरफ्तारी पर रोक लगाने के साथ ही यह भी निर्देश जारी कर दिए हैं कि इस धारा के तहत मामला दर्ज होने से पहले एक स्थानीय समिति मामले की जांच करेगी।
ऐसा होने से 498ए के झूठे मामलों पर रोक भी लगी है और सच में पीड़ित महिलाओं को न्याय मिलने का विकल्प भी बना हुआ है। ऐसा ही मैरिटल रेप के मामले में भी हो सकता है। समाज के कमोबेश हर वर्ग की महिलाओं को सरकार पति या पिता की संपत्ति समझती है। मिसाल के तौर पर ड्राइविंग लाइसेंस, में फलां की बेटी, बेटा या पत्नी का जिक्र होता है। वहीं आधार और पैन कार्ड में किसी महिला को नाबालिग के बराबर मानते हुए उसके पति या पिता के नाम का जिक्र होता है। यूं लगता है जैसे किसी महिला की अपनी आजाद जिंदगी और हस्ती ही नहीं होती। उसे अपने नाम के साथ अपनी मां का नाम लगाने का हक नहीं होता। लेकिन शायद हमें इसकी गंभीरता का एहसास नहीं है। सिर्फ इस आधार पर सरकार का कानून में बदलाव का विरोध करना गलत है कि इससे पतियों को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। सरकार को चाहिए कि अगर कोई शादीशुदा महिला अपने साथ जोर-जबरदस्ती को लेकर इंसाफ मांगती है तो उसका समर्थन किया जाए, ताकि उसका शारीरिक शोषण न हो।
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