पर्यावरण के दो सबसे बड़े दुश्मन, युद्धों के बारूदी जख़ीरे और औद्योगिक उत्सर्जन
जलवायु संरक्षण: 6
आत्मरक्षा के लिए बारूद के युद्धक जखीरों और औद्योगिक उत्सर्जन से प्रकृति और पूरी मानवता के सामने दो ही रास्ते बचे हैं कि विश्व समुदाय या तो हवा में सबसे ज्यादा ज़हर घोल रहे इन दोनो तरह के सबसे भयावह खतरों के खिलाफ एकजुट मुहिम छेड़े अथवा अब दुनिया के पूरी तरह तबाह हो जाने का इंतजार करे।
आज की जलवायु आपदा से युद्ध और औद्योगिकीकरण का वह एक अंतहीन कथानक भी जुड़ा हुआ है, जब उन्नीसवीं सदी से गोलियों में बारूद भरा जा रहा है। औद्योगिक उत्सर्जन से पूरी प्रकृतिक हांफ रही है। दुनिया इस समय खुद के बनाए बारूद के ऐसे ढेर पर बैठी हुई है, जहां आग की एक चिंगारी किसी भी पल सब कुछ खाक कर सकती है। तीन सौ ईसापूर्व चीन के जी हॉन्ग ने बारूद की खोज की। चीन ने पहली बार अंग्रेजों और फ़्रांस की सेना को बारूद बेचना शुरू किया। आज रक्षात्मक शस्त्रों का इतिहास परमाणु खतरों तक पहुंच चुका है।
वर्ष 2019 में ग्रीनपीस और आईक्यूएयर एयर विजुअल के नए अध्ययन के मुताबिक इस समय भी चीन और अमेरिका ही दुनिया में सबसे ज्यादा विषाक्त गैस उत्सर्जन कर रहे हैं। दूसरी तरफ, बढ़ती असुरक्षा के मद्देनजर दुनिया में हथियारों की होड़ बढ़ गई है। हर वक़्त दुनिया के तमाम देशों में आतंकवाद, और जवाब में सेनाएं हवा में बारूद घोल रही हैं।
इंडोनेशिया में जंगलों की कटाई दुनिया भर में पर्यावरण विज्ञानियों के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई है। हाई-स्पेशियल-रिजॉल्यूशन गूगल अर्थ इमेजरी और वन-कटाई के नवीनतम उपलब्ध वैश्विक आंकड़ों के मुताबिक, वन्य उत्पादों और लकड़ी की भारी मांग तथा प्राकृतिक क्षेत्रों में औद्योगिकीकरण, निर्माण कार्यों के कारण पूरी दुनिया में वनों की कटाई जलवायु आपदा का एक प्रमुख कारण है। 2001 से लेकर 2017 तक खासकर इंडोनेशिया के कुल वन क्षेत्र में 244 लाख हेक्टेयर की कमी आने से 2.44 गीगाटन कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है।
इस वक्त कुल बारूदी जखीरे पर नज़र दौड़ाइए तो दुनिया में 9 देशों अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इजरायल और उत्तर कोरिया के पास परमाणु हथियार हैं। दक्षिण एशिया में परमाणु हथियारों का उत्पादन बढ़ रहा है। सिपरी का अनुमान है कि 2019 की शुरुआत में दुनिया में परमाणु हथियारों की संख्या 13,865 थी।
अमेरिका और रूस के पास परमाणु हमले के लिए जरूरत से ज्यादा, कुल 15,000 ऐसे हथियारों का 90 फीसदी है। तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उत्तर कोरिया आदि की मिसाइलें, बम, लड़ाकू हेलीकॉप्टर, बम वर्षक विमान और परमाणु परीक्षण लगातार पर्यावरण में जहर घोल रहे हैं। कजाकिस्तान के 'द पॉलिगन' का इतिहास अपने आप में ख़ौफनाक है। जहां 1949 से 1989 के बीच लगभग हर साल 10 परमाणु बमों का परीक्षण किया गया, जिसके नतीजे आज तक सामने दिख रहे हैं। परमाणु युद्ध शुरू हुआ तो दुनिया और मानव सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
पर्यावरण प्रदूषित होने के कारण नाभिकीय युद्ध से पूर्व ही महाविनाश का भयानक दृश्य उपस्थित हो सकता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि पर्यावरण में बढ़ते निरन्तर प्रदूषण को तेजी से कम करने का प्रयास नहीं किया गया तो 21वीं सदी के अन्दर ही महाप्रलय की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। अपरम्परागत एवं घातक हथियारों के प्रयोग ने न केवल मानवता को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है बल्कि इनके प्रभाव से प्राकृतिक पर्यावरण का बिगड़ता सन्तुलन भी मानवता को महाविनाश के गर्त में गिरने के लिये मजबूर कर रहा है। विश्व के अनेक वैज्ञानिक आगाह कर चुके हैं कि पृथ्वी की सतह पर सूर्य की गर्मी की तीव्रता में अचानक तेजी से आई गिरावट पूरे ग्रह के मौसम में भारी अन्तर ला चुकी है। नाभिकीय शीत का प्रभाव पृथ्वी के गोले (पिण्ड) को भी तेजी के साथ ठंडा कर देगा, जिससे प्रकृति के साथ-साथ समस्त जीव-जन्तु भी सदा-सदा के लिए ठंडे हो जाएँगे।
दुनिया में आज तेल, गैस, रासायनिक क्रियाओं एवं ज्वलनशील पदार्थों का प्रभाव प्रतिवर्ग किलोमीटर सैकड़ों किलोग्राम बिछा हुआ है। पर्यावरण प्रदूषित होने के कारण इतना अधिक परिवर्तित हो रहा है कि नाभिकीय युद्ध से पूर्व ही महाविनाश का भयानक दृश्य उपस्थित हो सकता है। आकस्मिक जलवायु या मौसम परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया स्वयं ही भारी विपत्ति में पड़ सकती है।
अभी हाल ही में अमरीका के लॉस अल्गॉस नेशनल लेबोरेटरी के कर्नल जॉन आलेकसान्द्र ने लेसर किरणों, पराश्रव्य ध्वनियों, सूक्ष्म तरंगों, कुछ प्रमुख रसायनों वाला ऐसा हथियार बना लेने का दावा किया है, जो पूरी मानवता के लिए कलंक है। खाड़ी युद्ध का अत्याचार पृथ्वी का वायुमंडल भुगत ही रहा है।
कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन और गंधक के यौगिकों की बढ़ती मात्रा वायुमंडल पर कहर ढा रही है। सर्वेक्षणों के मुताबिक, विकसित देश 70 प्रतिशत और विकासशील देश 30 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड पैदा कर रहे हैं, जिसमें अकेले अमेरिका दुनिया के कुल कार्बन डाइऑक्साइड स्तर का 23 प्रतिशत पैदा कर रहा है। एरिजोना विश्वविद्यालय के पर्यावरण भौतिक शास्त्री जेम्स मैकडोनाल्ड के अनुसार सुपरसोनिक विमानों का उत्सर्जित जलवायु और जनजीवन पर सीधे असर कर रहा है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के हेराल्ड जॉनस्टन की शोध रिपोर्ट के मुताबिक, सुपरसोनिक विमानों द्वारा जलवायु की अपेक्षा नाइट्रिक ऑक्साइड का निकास ओजोन को ज्यादा प्रभावित कर रहा है। इंग्लैंड के जेम्स लावलैक ने कुछ साल पहले बताया था कि कुछ गैसें जैसे फ्लोरोमीथेन पूरे वायुमंडल में पसरी हुई हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद बाल्टिक सागर में डुबोया गया करीब 300,000 टन गोला, बारूद समुद्री जीवन तबाह कर रहा है।
अकेले जर्मनी के पानी में ही करीब 300,000 टन गोला बारूद और रासायनिक युद्ध सामग्री पड़े होने का अंदेशा है। इस दिशा में अंतरराष्ट्रीय रिसर्च प्रोजेक्ट 'डिसीजन एड फॉर मरीन म्युनिशंस' के वैज्ञानिक गोला बारूदों से रिसने वाले रसायनों के विश्लेषण के बाद सत्ताधारियों को आगाह कर चुके हैं।
औद्योगिक क्रांति ने पर्यावरण प्रदूषण को जन्म दिया है। बड़ी-बड़ी फैक्टिरियों के विकास, कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन के बहुत अधिक मात्रा में उपभोग, चिमनियों से लगातार विषैली गैसों के उत्सर्जन और उद्योगों में काम में आ रहे जल के बहिर्स्राव के कारण अप्रत्याशित रूप से प्रदूषण बढ़ा है। किसी भी मंच पर विश्व समुदाय इस सबसे भयानक खतरे पर विमर्श से परहेज कर रहा है क्योंकि शासकों का अपने-अपने राजनीतिक हितों के चलते उद्योग जगत से नाभि-नाल संबंध है। ये उद्योग सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, औद्योगिक उत्सर्ग, बहिर्स्राव से पेड़ और फसलों की बर्बादी और जन हानि के लिए जिम्मेदार हैं।
प्रदूषण नियंत्रण के मद्देनजर भारत सरकार ने सन् 1974 में जल प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण अधिनियम के अंतर्गत केंद्रीय जल प्रदूषण मंडल का गठन किया था। आज एक सर्वेक्षण के अनुसार सत्रह समूहों में विभाजित हजारों बड़े उद्योग (सही संख्या उपलब्ध नहीं) और 31 लाख लघु एवं मध्यम उद्योग वर्तमान में देश में कार्यरत हैं। उद्योगों की प्रगति के साथ ही प्रदूषण की भी प्रगति हुई है, जो वास्तव में सामान्य प्रदूषण से भी भयावह एवं जानलेवा है। उद्योगों के उत्सर्जन से सिलीकोसिस, न्यूमोकोनिओसिस, बाइसिनोसिस, लैड पाइजनिंग, मरकरी पाइजनिंग, श्रवण शक्ति का ह्रास, त्वचा रोग, श्वांस, मस्तिष्क, हार्ट, पीठ दर्द, आंख आदि के रोग फैल रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1992 एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में हर साल डेढ़ लाख लोग कुल 3.27 करोड़ औद्योगिक क्षेत्र की दुर्घटनाओं के शिकार हो रहे हैं। हमारे देश में कास्टिक सोडा, हस्तनिर्मित धागा उद्योग, तेल शोधक, चीनी, तापीय ऊर्जा संयंत्र, सूत उद्योग, ऊनी कपड़ा, रंगाई व छपाई, इलेक्ट्रोप्लेटिंग, सीमेंट उद्योग, पत्थर खनन एवं क्रसिंग, कोयले की भट्ठियों, सिंथेटिक रबड़, कागज एवं लुगदी, शराब की भट्ठियों, चमड़ा उद्योग, खाद, एल्युमीनियम, कैल्शियम कार्बाइड, कार्बन ब्लैक, कॉपर, लैड और जिंक स्मैलिटिंग, नाइट्रीक एसिड, सल्फ्यूरिक एसिड, आयरन एंड स्टील आदि विभिन्न उद्योगों से उत्सर्जित तत्व पर्यावरण की जान ले रहे हैं। पानी तो इस तरह बर्बाद किया जा रहा है, जैसे दुनिया ने भावी पीढ़ियों के जिंदा रहने के लिए 'बिना जल के जीवन' की कोई तरकीब खोज निकाली हो।